शालिनी जोशी देहरादून से
बासमती के लिए मशहूर देहरादून के किसान बासमती जलाएँगे. इन किसानों ने एक सरकारी परियेजना के तहत बिना रासायनिक खाद का इस्तेमाल किए बासमती की जैविक खेती की थी लेकिन अब इस बासमती का कोई खरीदार नहीं मिल रहा है.
किसानों का कहना है कि इस तरीक़े से खेती करना महँगा पड़ता है और उत्पादन भी कम होता है.
ओमप्रकाश डोगरा देहरादून की विकासनगर तहसील में किसान एकता समिति के अध्यक्ष हैं. आज उनके घर के दालान में करीब 35 क्विंटल जैविक बासमती के बोरे एक तरह से बेकार पड़े हैं.
इस समस्या से वो गहरी हताशा में हैं, "जैविक खेती ने तो हमें खून के आँसू रुला दिए. हमारी उपज में चूहे और चिड़िया लग रहे हैं. अगर यही हाल रहा तो ज्यादा दिन नहीं जब यहाँ का किसान भी आंध्र प्रदेश की तरह आत्महत्या करने लगेगा."
बेहाल
ओमप्रकाश डोगरा अकेले ऐसे किसान नहीं हैं बल्कि उत्तरांचल में बासमती उगाने वाले करीब 500 किसानों की मनोदशा आज ऐसी ही है.
देहरादून का बासमती अपनी बेहतरीन खुशबू, साफ, लंबे, चमचमाते दाने और लज़ीज़ स्वाद के लिए दुनिया भर में मशहूर है.
बासमती का कोई ख़रीदार नहीं
इसकी कीमत आम तौर पर 70 से 100 रूपए प्रति किलो होती है लेकिन कीटनाशकों और रासायनिक खाद के अधिक इस्तेमाल से इसके गुण में कमी आती जा रही थी.
दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय बाजार में जैविक खाद्य पदार्थों की बढ़ती माँग को देखकर सरकार ने तीन जिलों देहरादून, ऊधमसिंहनगर और नैनीताल में तीन साल पहले जैविक बासमती योजना शुरू की थी.
आज इन इलाकों में करीब 800 हेक्टेयर में लगभग पाँच सौ किसान हैं जो जैविक खेती कर रहे हैं और 1500 टन से ज्यादा बासमती बिना बिके पड़ी है.
किसी खेत को पूरी तरह से जैविक बनाने में कम से कम तीन साल लग जाते हैं लिहाजा इन किसानों की ये पहली फसल है जो पूरी तरह से जैविक है.
खेती का जैविक तरीका भले ही पौष्टिकता के लिहाज से बेहतर हो लेकिन अगर किसान का तर्क देखें तो रासायनिक खेती उसके लिए सस्ती और आसान थी.
जिस एक बीघे खेत से उन्हें तीन क्विंटल धान मिल जाया करता था अब उससे मुश्किल से एक क्विंटल धान उपज रहा है. इसी वजह से जैविक उत्पादों की कीमत ज्यादा होती है लेकिन अगर वो किसानों को मिले तब.
गुस्सा
सहसपुर के किसान सुरेश सिंह चौहान कहते हैं, "सरकार ने हवा में उत्तरांचल के जैविक राज्य घोषित कर दिया, विपणन की कोई व्यवस्था की नहीं. इससे भले तो हम रासायनिक खेती करते थे. सौ रूपए का दवा का डिब्बा लाते थे सारी खरपतवार खत्म हो जाती थी अब उसी के लिए हजार-हजार रूपए देकर मजदूर लगाने होते हैं."
सौ रूपए का दवा का डिब्बा लाते थे सारी खरपतवार खत्म हो जाती थी अब उसी के लिए हजार-हजार रूपए देकर मजदूर लगाने होते हैं
किसान सुरेश सिंह चौहान
किसान दोहरे संकट में इसलिए भी हैं क्योंकि इनकी उपज के जैविक होने का प्रमाणपत्र भी राज्य के जैविक बोर्ड के ही पास है. बंगलौर स्थित आईएमओ लिमिटेड से सरकार ने सामूहिक सर्टिफिकेट लिया था.
इस वजह से किसान स्वतंत्र रूप से अपना जैविक उत्पाद बेच भी नहीं सकते. अब जैविक बोर्ड ये कहकर अपना पल्ला झाड़ रहा है कि किसानों को खरीद का कोई आश्वासन नहीं दिया गया था.
बोर्ड की सचिव विनीता शाह कहती हैं कि "हम सिर्फ कंपनियों को यहाँ खरीद के लिए बुला सकते हैं इससे ज्यादा की किसानों को अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. एक जर्मन कंपनी इसे 14 रू प्रति किलो की दर से खरीदने के लिये तैयार है लेकिन ये किसान खुद ही नहीं बेच रहे हैं. ये चावल ही तो है कोई सोना चाँदी तो नहीं."
किसानों का कहना है कि इस दर से उन्हें मुनाफा तो दूर, हर बीघे में करीब 3000 रू का नुकसान है. किसानों की चिंता ये भी है कि इनके खेतों में अभी जैविक गेहूं की फसल भी लगी है जो अगले दो महीनों में तैयार हो जाएगी और तब उसका क्या होगा.
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